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शासकीय स्कूलों में मातृभाषा में पढ़ाई की शुरुआत में देरी, बच्चों की समझ पर असर

बिलासपुर :- छत्तीसगढ़ के शासकीय स्कूलों में बच्चों की मातृभाषा में शिक्षा न मिलने से उन्हें समझने में दिक्कत हो रही है। लैंग्वेज एंड लर्निंग के सर्वे में सामने आया कि करीब 66 प्रतिशत बच्चे कक्षा पहली में हिंदी की बजाय छत्तीसगढ़ी में संवाद करते हैं। यह भी कहा गया है कि इतने ही प्रतिशत बच्चों को पढ़ाई सीखने-समझने में तकलीफ उठानी पड़ती है क्योंकि पढ़ाई का माध्यम हिंदी है। इसका सबसे बुरा असर ग्रामीण क्षेत्र के बच्चों में देखने को मिलता है।

एनईपी के तहत पढ़ाई की शुरुआत में देरी
राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू हुए चार साल हो चुके हैं। अब तक शासकीय स्कूलों में इसे लागू नहीं किया गया है। इसके अनुसार, शिक्षा के शुरुआती पांच सालों तक पढ़ाई का माध्यम मातृभाषा होना चाहिए। लेकिन छत्तीसगढ़ में अब तक कोर्स बुक तैयार नहीं की गई है। वहीं स्कूलों में एनईपी के तहत प्रवेश प्रक्रिया भी सही ढंग से शुरू नहीं हो पाई है। ना ही यह स्पष्ट है कि सभी विषय मातृभाषा में पढ़ाए जाएंगे या सिर्फ एक ही विषय।

स्थानीय भाषाओं में कोर्स तैयार करने की योजना
छत्तीसगढ़ी, सरगुजिहा, हल्बी, सादरी, गोंडी और कुडुख जैसी स्थानीय भाषाओं में कोर्स तैयार किए जाने की योजना बनाई गई थी। इस कार्य के लिए प्रदेश के साहित्यकारों, लोक कलाकारों, गीतकारों और नाट्य प्रस्तोताओं से मदद भी ली जा रही थी। लेकिन एक और साल निकल गया और इसके कोर्स बुक तैयार नहीं किए जा सके हैं।

सालों से संघर्षरत
मोर चिन्हारी छत्तीसगढ़ी मंच के प्रांतीय संयोजक नंदकिशोर शुक्ल ने कहा कि स्कूलों में स्थानीय भाषा में पढ़ाई करवाने की शुरुआत जल्द से जल्द की जानी चाहिए। वह कहते हैं कि स्थानीय भाषा में पढ़ाई न होने से सुदूर क्षेत्र में रहने वाले बच्चों को पढ़ाई की शुरुआती उम्र में ही चीजों को समझने में कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। शुरुआती पढ़ाई कमजोर होने के चलते यहां के बच्चे लंबे समय तक शालाओं में नहीं टिकते। स्थानीय भाषाओं में पढ़ाई की शुरुआत कर इस समस्या को सुधारा जा सकता है।

Upendra Pandey

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