क्या है कुंभ मेले का इतिहास
हिन्दू धार्मिक परम्परा का यह सम्भवतः सबसे बड़ा आयोजन है। करोड़ों लोग गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम पर स्नान करते हैं। इस बार का महाकुंभ सोशल मीडिया पर छाया हुआ है। लोग अपनी स्टेटस और स्टोरी पर कुंभ से जुड़ी पोस्ट कर रहे हैं। अभय सिंह आईआईटियन बाबा और हर्षा रिछारिया साध्वी जैसे मशहूर नाम इस मेले के माध्यम से सुर्खियों में आए और वायरल हो गए हैं।
उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में इन दिनों महाकुंभ का मेला चल रहा है। इस मेले की 13 जनवरी, 2025 से शुरुआत हुई थी, जिसका आखिरी अमृत स्नान महाशिवरात्रि यानी 26 फरवरी 2025 को किया जाएगा। हिन्दू धार्मिक परम्परा का यह सम्भवतः सबसे बड़ा आयोजन है। करोड़ों लोग गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम पर स्नान करते हैं। मेले के आयोजन को लेकर उत्तर प्रदेश की सरकार ने विशेष इंतज़ाम किए हैं। मेले में पहुंचने के लिए देश भर के ट्रेन रूट से स्पेशल ट्रेनों का संचालन रेलवे द्वारा किया जा रहा है। मेले में कई स्थानों पर प्रसाद, भोजन की व्यवस्था है। इस दुर्लभ मेले में शामिल होने के लिए लाखों लोगों का तांता लगा हुआ है। विदेशों से भी कई लोग यहां पहुंच रहे हैं और मेले की दिव्यता, भव्यता के साक्षी बन रहे हैं।
कुंभ की पौराणिक कथा
पौराणिक कथा के मुताबिक, अमृत पाने के लिए देवताओं और असुरों के बीच समुद्र मंथन किया गया। इस मंथन के दौरान कई तरह के रत्न उत्पन्न हुए, जिन्हें देवताओं और असुरों ने बांट लिया। समुद्र मंथन के आखिर में भगवान धन्वंतरि अमृत का कलश लेकर प्रकट हुए। अमृत पाने की लालसा में देवताओं और असुरों में युद्ध छिड़ गया। इस छीना-झपटी में अमृत की कुछ बूंदें धरती के 4 स्थानों, प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में गिर गईं। माना जाता है कि तभी से इन चार स्थानों पर हर 12 साल के अंतराल में कुंभ का आयोजन होता है।
क्या है कुंभ मेले का इतिहास
पहली बार कुंभ का आयोजन कब हुआ, इसे लेकर कोई सटीक प्रमाण नहीं मिलता। प्रथम कुंभ आयोजन की तारीख को लेकर अलग-अलग मत हैं। कुछ मान्यताओं के अनुसार, 7वीं शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन के काल में चीनी तीर्थयात्री ह्वेनसांग ने अपने एक यात्रा विवरण में कुंभ का वर्णन किया है।
इस यात्रा विवरण में उन्होंने प्रयागराज के कुंभ महोत्सव के दौरान संगम पर स्नान का उल्लेख करते हुए इसे पवित्र हिंदू तीर्थस्थल बताया है। वहीं कुछ लोगों का यह भी मानना है कि 8वीं शताब्दी में भारतीय गुरु तथा दार्शनिक आदि शंकराचार्य जी और उनके शिष्य सुरेश्वराचार्य ने दसनामी संन्यासी अखाड़ों के लिए संगम तट पर स्नान की व्यवस्था की थी।