भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर आजाद ने नगीना लोकसभा सीट जीतकर मायावती-अखिलेश को दी चुनौती
भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद ने नगीना लोकसभा सीट जीतकर अखिलेश और मायावती के गढ़ में चुनौती दी है। आंबेडकर के महाड़ आंदोलन के 2027 में 100 साल पूरे हो रहे हैं, यह घटना दलित आंदोलन के इतिहास में मील का पत्थर मानी जाती है। ऐसे में यूपी चुनाव से पूर्व क्या नया इतिहास लिख रहे हैं चंद्रशेखर, एक्सपर्ट से जानेंगे।
20 मार्च, 1927 को महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले का महाड़ तालुका इतिहास में नई इबारत लिखने जा रहा था। डॉ. भीमराव आंबेडकर हजारों की संख्या में दलित वर्गों के सदस्य सत्याग्रह में भाग लेने के लिए महाड़ में जमा हुए थे। आंबेडकर और उनके समर्थकों ने महाड़ की चावदार झील तक मार्च किया। जहां उन्होंने पानी पिया और समानता के अपने अधिकार और सार्वजनिक संसाधनों पर समान पहुंच का दावा किया। इस सत्याग्रह के साथ ही पारंपरिक और जड़ रूढ़िवादी समाज में हलचल मच गई। उत्पीड़क जातियों ने तालाब का शुद्धिकरण अनुष्ठान भी किया, जो उनके अनुसार अछूतों के स्पर्श से अपवित्र हो गया था। आखिरकार कोर्ट में 10 साल तक चली लंबी लड़ाई के बाद आंबेडकर की जीत हुई। दरअसल, महाड़ की इस झील में पशु पानी पी सकते थे, मगर दलितों के पानी पीने पर मनाही थी। आंदोलन के इस बिगुल ने भारत में दलित चेतना की नई क्रांति की शुरुआत कर दी। इस आंदोलन के 100 साल 2027 में उस वक्त पूरे होने जा रहे हैं, जब यूपी में विधानसभा चुनाव होंगे। इससे पहले भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद ने नगीना लोकसभा सीट जीतकर एक नई इबारत लिख दी है।
अछूतों का पहला सामूहिक विरोध था महाड़ सत्याग्रह
आंबेडकर के नेतृत्व में 1927 के महाड़ सत्याग्रह से शुरू हुआ अछूतों का पहला बड़ा सामूहिक विरोध माना जाता है। यह दलित चेतना जगाने की पहली कोशिश भी थी। उस समय आंबेडकर ने कहा था-ऐसा नहीं है कि चावदार झील का पानी पीने से हम अमर हो जाएंगे। हम इतने दिनों तक बिना पानी पिए भी अच्छी तरह से जीवित रहे हैं। हम चावदार झील पर सिर्फ उसका पानी पीने नहीं जा रहे हैं। हम झील पर यह जताने जा रहे हैं कि हम भी दूसरों की तरह इंसान हैं।” आंबेडकर ने जाति के विनाश (1936) नाम के एक लेख में कहा था कि समाज के पुनर्निर्माण के अर्थ में राजनीतिक सुधार बिना सामाजिक सुधार के नहीं हो सकता है।
इंडिया गठबंधन की 43 सीटें बनाम आजाद की 1 सीट
पिछले चुनावों में 62 सीटें जीतने वाली भाजपा इस बार 31 सीटों पर सिमट गई है। इस बार दलित मतदाता बड़ी तादाद में इंडिया गठबंधन की तरफ आए हैं। उत्तर प्रदेश में 80 लोकसभा सीटों में से 37 पर समाजवादी पार्टी और 6 पर कांग्रेस की जीत हुई है। वहीं, आजाद को नगीना लोकसभा सीट पर जीत हासिल हुई है। यह सीट इसलिए भी मायने रखती है, क्योंकि यह कभी बसपा और सपा का गढ़ हुआ करती थी। इस सीट पर दलित वोटर्स निर्णायक भूमिका में तो हैं हीं, साथ में मुस्लिम वोटों की भी पर्याप्त संख्या है। ऐसे में यहां पर आजाद का जीतना दलित राजनीति का एक नया संकेत है।
रील्स देखने-बनाने वाले युवाओं में आजाद पॉपुलर
किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में प्रोफेसर और दलित साहित्यकार प्रोफेसर नामदेव के अनुसार, बीते एक दशक से मायावती सक्रिय राजनीति से थोड़ी दूर ही रही हैं। उनका वो तेवर देखने को नहीं मिला, जैसा कि हुआ करता था। ऐसे में चंद्रशेखर आजाद का दलित राजनीति के रूप में एक नए चेहरे के रूप में उभरना अच्छा संकेत है। चंद्रशेखर की एक बात जो उन्हें खास बनाती है कि वो युवाओं में बेहद पॉपुलर हैं, उनकी रौबदार मूंछें और उनकी वेशभूषा का स्टाइल लोगों को भाता है। हर आंदोलन के बाद उनकी छवि और मजबूत हुई है। आज दलित युवा वो हैं, जो हाथों में मोबाइल रखता है, रील्स देखता और बनाता है, ऐसे में उसे किसी युवा और दमदार नेता की जरूरत थी। आजाद में वो सभी काबिलियत हैं, जो दलित युवा या वोटर्स उनसे प्रभावित हो सके।
आगामी विधानसभा चुनाव में आजाद का होगा लिटमस टेस्ट
रिसर्च संस्था सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज से जुड़े प्रोफेसर निशिकांत कोलगे कहते हैं कि इस बार के लोकसभा चुनाव में चंद्रशेखर आजाद का उभरना दलित राजनीति के लिए एक बड़ा संकेत है। चंद्रशेखर युवा हैं और दलित राजनीति के क्षेत्र में उनके लिए असीम संभावनाएं हैं। कांशीराम और मायावती के बसपा का प्रदर्शन जिस तरह से नीचे जा रहा है, उसमें चंद्रशेखर का उभरना नई उम्मीद जगाता है। हालांकि, अभी यह कहना जल्दबाजी होगा कि वो मायावती की जगह ले सकते हैं। दरअसल, मायावती के मुकाम तक पहुंचने के लिए उन्हें अभी और मेहनत करनी होगी, दलित युवाओं में गहरी पैठ बनानी होगी। यूपी के आगामी विधानसभा चुनाव उनके लिए प्रयोग के तौर पर साबित होंगे कि दलित वोटर्स उन्हें या उनकी पार्टी को कितनी अहमियत दे रहे हैं।
2015 में आने के साथ ही कैसे बढ़ता गया आजाद का ग्राफ
चंद्रशेखर आजाद ने 2015 में भीम आर्मी भारत एकता मिशन के नाम से एक संगठन बनाया था, जिसे आमतौर पर भीम आर्मी कहा जाता था। इस संगठन का मकसद दलितों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ना। इसके बाद आजाद ने देश में कई दलित आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और वह दलितों के नेता के रूप में एक बड़ा चेहरा बनकर उभरे। मार्च, 2020 में फायरब्रांड लीडर आजाद ने आजाद समाज नाम से एक राजनीतिक पार्टी बनाई, जिसमें सपा, बसपा और राजद के कई नेता शामिल हुए।
नगीना से चंद्रशेखर की जीत इतनी महत्वपूर्ण क्यों
नगीना लोकसभा सीट 2008 में परिसीमन के बाद बनाई गई थी। यह सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट है, क्योंकि यहां पर 21 फीसदी के करीब दलित वोटर हैं। वहीं, यहां पर 50 फीसदी वोटर मुस्लिम हैं। नगीना लोकसभा क्षेत्र के दायरे में पांच विधानसभा सीटें आती हैं, जिनमें से मौजूदा वक्त में 3 सीटें सपा के पास हैं, जबकि 2 सीटें भाजपा के पास हैं। ऐसे में यहां पर दलित वोटरों और मुस्लिम वोटरों का आजाद के समर्थन में वोट करना मायने रखता है।
दो सीटों पर लड़े चुनाव, एक पर हासिल की जीत
चंद्रशेखर की पार्टी ने उत्तर प्रदेश की सिर्फ दो सीटों नगीना और डुमरियागंज पर चुनाव लड़ा। डुमरियागंज सीट से पार्टी के उम्मीदवार ने 81 हजार से ज्यादा वोट हासिल किए हैं। वहीं, बसपा के मोहम्मद नदीम को करीब 36 हजार ही वोट मिले। यह सीट भाजपा उम्मीदवार जगदंबिका पाल ने जीती, जिन्होंने सपा के भीष्म शंकर उर्फ कुशल तिवारी को हराया है।
नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ थे चंद्रशेखर
देश में जब नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ आंदोलन खड़ा हुआ तो चंद्रशेखर खुलकर आंदोलन में शामिल हुए। हजारों की भीड़ के बीच वो दिल्ली की जामा मस्जिद से संविधान की कॉपी हाथ में लेकर बाहर निकले। देश में जहां से भी उन्हें दलितों या वंचितों पर शोषण की जानकारी मिली, वो वहां पहुंचे। उनके इस तेवर ने दलित युवाओं में एक क्रेज पैदा किया और कुछ सालों के भीतर ही वो चर्चित चेहरा बन गए।
यूपी चुनाव लड़े, मगर नहीं जीत पाए 1 भी सीट
चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) ने उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनावों में अकेले चुनाव लड़ा। मगर, उनका एक भी उम्मीदवार नहीं जीत सका। चुनाव में अकेले जाने से पहले उन्होंने सपा के साथ गठबंधन के लिए अखिलेश यादव के साथ बैठकें कीं, लेकिन बात बन नहीं सकी। 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले चंद्रशेखर की राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष जयंत चौधरी से नजदीकियां बढ़ीं। इंडिया गठबंधन में शामिल रही रालोद आगे चलकर बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए गठबंधन के साथ हो गई। चंद्रशेखर ने फिर अकेले ही चुनाव लड़ने का फैसला किया।